Parched: सब्जेक्ट घिसा-पिटा, ट्रीटमेंट चमचमाता

Update: 2016-10-02 14:00 GMT
Film Review by Shabnam Khan 

गांव का एक घर। एक कमरे में कुछ महिलाएं बैठकर खाना खाते हुए बातें कर रही हैं। खुशनुमा माहौल है। वहां मौजूद एक बुज़ुर्ग महिला अपनी बहू के लिए कहती है कि वो तो लड़कियां पैदा करने की फैक्ट्री बन गई। ये बात सुनकर वहीं मौजूद दूसरी महिला ज़ोर से हंसते हुए कहती है कि इन मर्दों का बस चले तो घर-घर में बच्चों की फैक्ट्री खोल दें, अच्छा है मेरी जैसी बांझ भी होती हैं वरना बच्चों का नया प्रदेश बनाना पड़ता। माहौल अचानक गंभीर हो जाता है, छोटी बच्चियां, जवान और बुज़ुर्ग महिलाएं इस दुस्साहसी महिला को घूरने लगती हैं। फिल्म ‘पार्च्ड’ का ये शुरुआती सीन यहीं खत्म हो जाता है, लेकिन ख़त्म होने से पहले साफ कर देता है कि फिल्म की निर्देशक लीना यादव किस ट्रीटमेंट के साथ हमें फिल्म की कहानी सुनाने वाली हैं।

Film Parched

पार्च्ड कहानी गुजरात के कच्छ के ग्रामीण इलाके की रहने वाली चार महिलाओं की है। रानी (तनिष्ठा चैटर्जी) एक जवान विधवा और अय्याश किशोर की मां है। रानी की नाबालिग बहू जानकी (लहर ख़ान) है जिसने अपने सारे बाल इसलिए काट लिये क्योंकि वो शादी नहीं करना चाहती थी। लाजो (राधिका आप्टे) मां नहीं बन सकती इसलिए वो अपने पति से पिटती रहती है और बिजली (सुरवीन चावला) गांव के मर्दों का नाचकर मनोरंजन करती है। रानी, लाजो और बिजली की दोस्ती गहरी है, इतनी गहरी कि वो अपनी ज़िंदगी की अंधेरी से अंधेरी रात में भी एक दूसरे को हंसा सकती हैं। ये तीनों अपनी आम ज़िंदगी तो जीती है, लेकिन साथ ही ये तीनों अपनी-अपनी ख्वाहिशों के आगे पीछे दौड़ती भी हैं। फिल्म की कहानी आपको हंसाते-हंसाते गंभीर कर देने का माद्दा तो रखती है, लेकिन ये कहानी बहुत घिसी-पिटी है, जिसे एक नए ट्रीटमेंट में लपेटकर परोस दिया गया है।

Parched 

इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी इसका सब्जेक्ट है। हिंदी सिनेमा में कई दशक पहले से ही बाल-विवाह, बांझपन, वैश्यावृत्ति, महिलाओं पर होने वाले तमाम अत्याचार पर फिल्में बनती आई हैं। इस फिल्म में ग्रामीण वर्ग की महिलाओं की ज़िंदगी से जुड़ी समस्याएं दिखाई गई हैं, जिसे देखकर बड़े-छोटे शहर के मल्टी-प्लेक्स में बैठी ऑडियेंस सिर्फ आंखों में दो चार आंसू ला सकती है, इसके साथ खुद को जोड़ पाना मुश्किल ही है। इस फिल्म को ज्यादातर वही लोग देखेंगे, जो उस तरह के गांव को अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं देखेंगे। इस वजह से ये फिल्म साफ-साफ ‘फिल्म फेस्टिवल प्रॉडक्ट’ लगती है।

इस फिल्म की जान सिनेमैटोग्राफी है जो आपको पहले सीन से नज़र आ जाती है। इसमें आपको ऐसे-ऐसे फ्रेम देखने को मिलते हैं, जो बॉलीवुड सिनेमा के लिए दुर्भल चीज़ है। इसकी वजह फिल्म के सिनेमैटोग्राफर रसेल कारपेंटर हैं, जिन्होंने हॉलीवुड की मशहूर फिल्म ‘टाइटैनिक’ के लिए सिनेमैटोग्राफी की थी। इसके अलावा फिल्म के सारे मुख्य किरदारों ने शानदार ऐक्टिंग की है, जिससे फिल्म पुराना सब्जेक्ट होने के बावजूद उबाऊ नहीं लगती। हां लेकिन स्क्रिप्ट जरूर ढीली है, जिसके चलते फिल्म कई जगह खिंची-खिंची भी लगने लगती है। फिल्म का म्यूज़िक और बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के साथ जाता हुआ नज़र आता है। लोक संगीत का जिस तरीके से इसमें इस्तेमाल किया गया है, उसके लिए संगीतकार हितेश सौनिक की तारीफ होनी चाहिए।

Lehar Khan Parched

इस फिल्म के बोल्ड सीन्स के लीक होने की चर्चा फिल्म रिलीज़ होने से ज्यादा रही। राधिका आप्टे ने वाकई इस फिल्म में कुछ ऐसे सीन किये हैं, जिन्हें उनके करियर के साथ लंबे वक्त तक जोड़कर देखा जाएगा। हालांकि जब आप फिल्म देखेंगे तो ये सीन आपको अजीब नहीं लगेंगे, बल्कि कहानी का ज़रूरी हिस्सा लगेंगे। फिल्म की शुरुआत जितनी खुशनुमा है, फिल्म का अंत उतना हल्का। ऐसा लगता है कि राइटर और डायरेक्टर ने यहां आकर अपनी इमैजिनेशन को आराम दे दिया, और फिल्म को ऐसे ही फ्लैट नोट पर ख़त्म कर दिया।

कुल मिलाकर फिल्म देखी तो जा सकती है, लेकिन इसमें देखने लायक बहुत कुछ नहीं है। हां, फिल्म देखने के बाद आप घंटों अपने बुद्धिजीवी दोस्तों के साथ बहस कर पाएंगे। इस फिल्म को एक और बात का फायदा मिला है कि ये ऐसे युग में आई है जब सोशल मीडिया पर फेमिनिज़्म की चर्चा एक फैशन बन चुका है। ऐसे में एक ख़ास वर्ग ने इस फिल्म को बड़े-बड़े सिनेमाघरों में कई सौ रुपये खर्च करके देखा, और फिल्म ने थोड़ी बहुत कमाई भी कर ली।

- शबनम ख़ान पत्रकार, लेखक और फ़िल्म समीक्षक हैं। मौजूदा वक्त में वो इंडिया.कॉम में कार्यरत हैं।

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